संतमत और संतों की विचारधारा सरगुन और निर्गुण साधनाओ की सीमाओं से परे है, जो पूरी तरह से आत्म-साक्षात्कार पर आधारित है। संतमत की पूरी विचारधारा केवल एक सच्चे सतगुरु के इर्द-गिर्द घूमती है और यह किसी भी प्रकार की पांडुलिपियों / धार्मिक शास्त्रों / विभिन्न देवताओं की पूजा इत्यादि पर निर्भर नहीं है। संत सम्राट सतगुरु कबीर साहिब ने "सतगुरु" शब्द का प्रयोग सबसे पहले किया था। वह मानव जाति के इतिहास में पहले संत सतगुरु थे। संतमत में "गुरु" शब्द के स्थान पर "सतगुरु" का प्रयोग किया जाता है और भगवान की तुलना में इसे बहुत उंचा स्थान दिया जाता है। अपनी पुस्तक अनुरागसागर वाणी में कबीर साहिब नें उल्लेख किया है कि यह ब्रह्मांड (त्रिलोक) काल निरंजन (कालपुरुष) का है, जो स्वयं निराकार मन के रूप में प्रत्येक जीव में निवास करता है।
काल निरंजन सुष्मना में रहता है जो दो नाड़ी इंगला (बाईं नासिका) और पिंगला (दाईं नासिका) के मिलने के स्थान पर है। इस पूरे ब्रह्मांड को उसने बनाया गया है, संचालित कर रहा है और अंत में वही उसको नष्ट करेगा। पर हर व्यक्ति किसी न किसी तरीके से काल निरंजन (निराकार मन) की ही पूजा कर रहा है और उसीको अपना मसीहा या परमेश्वर मानता है। निराकार मन ने प्रत्येक आत्मा को १४ इंद्रियों में उलझा दिया है -
१) ५ कर्म इन्द्रियां यानि हाथ, पैर, जीभ, प्रजनन अंग और गुदा
२) ५ ज्ञान इन्द्रियां यानी आंख, नाक, कान, मुंह और त्वचा
३) ४ सूक्ष्म इन्द्रियां यानी मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार हर व्यक्ति इन इंद्रियों की मांगो को पूर्ण करने को ही इस दुनिया में पैदा होने का एकमात्र कारण मानता है और यही एकमात्र बाधा है कि आत्मा इस संसार सागर से खुद को मुक्त नहीं कर सकती और निर्वाण प्राप्त नहीं कर सकती।
यह शरीर आत्मा के बिना नहीं रह सकता। एक मृत शरीर की आंखें हैं लेकिन वह देख नहीं सकता, उसकी नाक है लेकिन वह सूंघ नहीं सकता, उसके कान हैं लेकिन सुन नहीं सकता। तो यह आत्मा ही शरीर में सभी काम कर रही है। परन्तु हमारी आत्मा का इस शरीर और उसकी गतिविधियों से कोई लेना-देना नहीं है। आत्मा खाती नहीं है, सोती नहीं है, उसे रहने के लिए घर की जरूरत नहीं है आदि। सवाल यह उठता है कि हम इस शरीर की जरूरतों को पूरा करने के लिए क्यों भाग रहे हैं। हमें अच्छा खाना खाने, अच्छी महक सूंघने, अच्छे दृश्य देखने, बड़ा घर और कार खरीदने और यहां तक कि बड़ी मात्रा में धन जमा करने की जरूरत क्यों महसूस होती है? इसका उत्तर यह है कि यह मन के द्वारा किया जा रहा है। यह चुपचाप हमारे मस्तिष्क के माध्यम से इन इच्छाओं को भेजता है और यही मस्तिष्क आत्मा को उनकी पूर्ती करने के लिए निर्देश देता है। दिन के २४ घंटे, सप्ताह के ७ दिन और साल के ३६५ दिन हम इस वास्तविकता को जाने बिना इन इच्छाओं को पूरा करने के लिए दौड़ रहे हैं। इस लालच का कोई अंत नहीं है। उन्हें पूरा करने के लिए मनुष्य को अच्छे और बुरे दोनों कर्म करने के लिए मजबूर किया जा रहा है। यही मुख्य कारण है कि प्राणी, जन्म और मृत्यु के अंतहीन चक्रों में विभिन्न प्रजातियों के रूप में पुनर्जन्म ले रहा है।
इंसान ही एकमात्र ऐसा प्राणी है, जो अपनी आत्मा को जीवन और मृत्यु के अंतहीन चक्रों से छुटकारा दिला सकता है। लेकिन मन बहुत शक्तिशाली है और आपको दुनियादारी में ही व्यस्त रखेगा। केवल एक सच्चा सतगुरु ही आत्मा को " सजीवन नाम" (सार नाम) देकर इस चक्र से मुक्त करने की शक्ति रखता है। यह नाम वास्तव में एक शक्ति है जो आत्मा को जगाएगी और फिर यह समझ में आएगा कि कैसे मन लगातार इन इच्छाओं को पैदा कर रहा है जिन्हें हम पूरा करने की कोशिश में लगे हैं। जब इच्छाएं कम हो जाएँगी तो आप जीवन का आनंद लेना शुरू कर देंगे और धीरे-धीरे सतगुरु का ध्यान करके आप निर्वाण प्राप्त कर सकते हैं।
सच्चे सतगुरु की विचारधारा के अनुसार साहिब बंदगी आध्यात्मिक संसथान ने जो पांच प्रमुख बातें बताई हैं, वे नीचे दी गई हैं:
१) यह काल निरंजन (मन) की दुनिया है और वह ब्रह्मांड का शासक है।
२) योगियों को निरंजन तक पहुँचने के लिए वास्तव में कठिन संघर्ष करना पड़ता है (शून्य - १४ वाँ लोक, जो हर मनुष्य में मौजूद है)। वेदों में निरंजन को निराकार,आदि निरंजन, ओंकार, पार-ब्रह्म, निर्गुण ब्रह्म आदि के रूप में सम्बोद्यित किया गया है।
३) ऋषि, मुनि, सिद्ध, साधक, पीर, पैगंबर, योगी, गण, गंधर्व आदि केवल १४ वें लोक (शून्य) तक पहुँच पाए, लेकिन सभी जन्म और मृत्यु के चक्र से मोक्ष पाने में असफल रहे अर्थात वे भी निरंजन से बच नहीं सके।
४) शून्य से परे महा-शून्य की रचना है। महा-शून्य में ७ लोक हैं जहां कोई भौतिक पदार्थ मौजूद नहीं है। ये ७ लोक हैं:
• अचिंत लोक
• सोहंग लोक
• मूल-सुरति लोक
• अंकुर लोक
• इछा लोक
• वाणी लोक और
• सहज लोक
सभी २१ लोक (यानी १४ लोक शून्य तक और ७ महा शून्य - सहज लोक तक) महा प्रलय में नष्ट हो जाते हैं।
५) आत्मा, जिसे हंस की संज्ञा भी दी गयी है अमरलोक से इस ब्रह्मांड में आई है। अमरलोक नित्य है और किसी प्रलय में नष्ट नहीं होता है। वहां ५ तत्व (जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी, आकाश) नहीं है, कोई ब्रह्मांड (सूर्य, चाँद, तारे, गृह) नहीं है, कोई लिंग (स्त्री/पुरुष) नहीं है, समय नहीं है (दिन, रात, काल, चरण, युग), कोई दूसरा भगवन (निरंजन, आद्या शक्ति, ब्रह्मा, विष्णु, शिव), कोई जन्म-मृत्यु, कोई दण्ड आदि नहीं है।